इन तीन प्रश्नों पर विचार करें



१३ अगस्त २०२५ बुधवार, भाद्रपद कृष्णपक्ष चतुर्थी २०८२
ऋषि चिंतन
👉"चतुर लोग" प्रचलित क्रिया-कलापों में अपनी विशिष्टता का परिचय देते और जिस-तिस प्रकार लाभ अर्जित कर दिखाते हैं किंतु "विवेकवानों" को तो वही सोचना एवं कराना पड़ता है, जिससे मर्यादाएँ निभती रहें और शालीनता की उमंगें उभरती रहें; ऐसे गौरवशाली मान्यता के धनी लोगों के सामने तीन समस्या प्रमुख रहती हैं। एक यह कि अन्य प्राणियों के लिए सर्वथा दुर्लभ इतना कलात्मक जीवन सृष्टा ने किस प्रयोजन के लिए प्रदान किया तथा उस विशिष्ट अनुदान का अधिकारी समझा ? दूसरा यह कि जो आवश्यक साधन एवं वैभव प्राप्त है, उसका आज की परिस्थितियों में सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता है ? तीसरा यह कि जन्म की तरह मरण निश्चित है। वह कल भी हो सकता है और परसों भी। तब जिस दरबार में हाजिर होना होगा, वहाँ किस प्रकार, किस रूप में अपनी जीवनचर्या का निर्धारण प्रस्तुत करना पड़ेगा ?इन तीन प्रश्नों की सही उत्तर देने के लिए, जो व्यक्ति परीक्षार्थी जैसी तैयारी करता है, जो सही उत्तर देकर ससम्मान उत्तीर्ण होता है, समझा जाना चाहिए कि उसने मनुष्य जीवन के महत्त्व समझा और तदनुरूप व्यवहार करके उपलब्धियों को सार्थक कर दिखाया। ऐसे लोग संख्या में भले ही थोड़े हों, पर "प्रतिभा", "प्रखरता" और "प्रामाणिकता" से संपन्न उन्हें ही कहा जाएगा।
👉जिन्हें इन प्रश्नों से कुछ लेना-देना नहीं है, जो इस तरह कभी सोचते नहीं, सोचने की आवश्यकता नहीं समझते, फुरसत नहीं पाते वे मनुष्य समुदाय के घटक तो हो सकते हैं, पर वे वस्तुतः किसी अन्य लोक के प्राणी ही कहे जा सकते हैं। व्यंग्य में उन्हें पृथ्वी के यक्ष, गन्धर्व, किन्नर भी कह सकते हैं। फूहड़ शब्दों में इन्हें "बड़े आदमी" "चतुरता के धनी", "बहेलिये", "कलावंत" भी कहा जा सकता है। वे अपनी चतुरता के बल पर, खोटे सिक्के की तरह दाँत लगाने पर चल तो जाते हैं, पर मनुष्यता की हर कसौटी पर अनुपयुक्त ही सिद्ध होते हैं। खरे सोने वे हैं, जो कसौटियों पर कसे जाने और "आदर्शों" की आग में तपने पर भी अपनी गरिमा अक्षुण्ण बनाए रहते हैं। वही तो पवन की तरह प्राण बाँटते हैं, बादलों की तरह बरसते और सूर्य की तरह स्वयं प्रकाशवान-गतिशील रहकर, हर कहीं आभा और ऊष्मा बिखेरते हैं। इन्हीं के लिए उन तीन प्रश्नों का उत्तर सही रूप से दे सकना संभव होता है कि जीवन किसलिए मिला है ? उसके साथ *किन कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों का अनुबंध जुड़ा ? और सृष्टा के दरबार में पहुँचने पर, गर्दन ऊँची उठाकर अपने क्रिया कलापों का संतोषजनक विवरण प्रस्तुत करते बन पड़ा ?
समयदान ही युगधर्म पृष्ठ ११
।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।
बिजेन्द्र नाथ चौबे, गायत्री शक्तिपीठ महावीर घाट गंगा जी मार्ग बलिया।

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