बलिया में ऋषि परंपरा को संरक्षित कर रहे हैं महर्षि भृगु वैदिक गुरुकुलम के बटुक

बलिया में ऋषि परंपरा को संरक्षित कर रहे हैं महर्षि भृगु वैदिक गुरुकुलम के बटुक

बलिया : रामगढ़, हुकुम छपरा (गंगापुर) में संचालित महर्षि भृगु वैदिक गुरुकुलम के बटुक सहित सभी आचार्यों ने प्रायश्चित कर दश विधि स्नान के साथ वेद पाठ कर ऋषि पूजन किया। श्रावणी उपाकर्म गुरुकुलम के आचार्य पं. मोहित पाठक ने बताया कि हमलोग गंगा जी के पावन घाट पर एकत्रित होकर श्रावणी पर्व मना रहे हैं, यह द्विजत्व की साधना को जीवन्त और प्रखर बनाने का पर्व है। इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जो जुड़ता हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता है। वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं।

 

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द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है। युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है, जब ब्रह्म का ‘एकोहं बहुस्यामि’ का संकल्प फलित हुआ। भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ, उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए और सृष्टि की रचना की। पं. मोहित पाठक बताते है कि श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प।

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गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं।

इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है।

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इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है। उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए।

श्रावणी पर्व वैदिक काल से शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है। इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। गुरुकुल के आचार्य शौनक द्विवेदी जी ने वैदिक मंत्रोच्चार के साथ पूजन कराया। बटुकों ने चारों वेदों का पाठ किया। आचार्य अमन पांडेय, प्रबोध पांडेय, राजकुमार उपाध्याय, हर्षनाथ ओझा सहित सभी विप्र बंधु उपस्थित रहे।

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