बलिया के शिक्षक की 'मयकशी', जरूर देखें
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मयकशी
कंपकपाते लफ़्ज़ बेदम से लड़खड़ाते पांव...
जग उठी अरमान लत, इज्जत लगी दांव तब शान,
इज्जत की इज्जत में, के लिए पिरोया था जब आन
कंपकपाते लफ़्ज़, बेदम से लड़खड़ाते पांव तन
रक्त सी आंखें निशा में, तिमिर चीर अरुणिमा सी
स्याह रातों में डूबी, जज़्बातें दोऊ धवल नयन
आसव मात्र आशय मयकशी, छलक गया मय नेह
क्षीण अक्ल धर्म मय दौलत गई, हाला उठी अब गेह
तंग जंग हार निकली आह ! बेबसी की, बात आई देह
दिन प्रति झूमते, रहते लगाते मधु ये निर्भय
लांघ सीमाएं तोड़ बंदिशें, सूखा नजर का जलाजल
प्रश्न में डूबी तब शहदी, ये बन गया कैसे हलाहल
अमिट भूख की मय धरा, प्यास सिंधु नहीं सोमरस
त्याज्य अरु त्याग के, उधेड़-बुन में जीता ये मयकश।
निर्भय नारायण सिंह
शिक्षक, बलिया
Tags: बलिया
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