बदलना चाहती है स्त्री, स्त्री होने की परिभाषा
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झाड़ रही है धूल जो जमी थी समूची सहस्राब्दी पर
खुद के सृजन का मार्ग अब वो कर रही है आसां
खुद के सृजन का मार्ग अब वो कर रही है आसां
खप जाये न दीवारों में दमित इच्छाओं का रंग
हृदयों पर उभरे नाम यही हृदय की अभिलाषा
न आगे बहुत, न पददलित कर पीछे करने का रिवाज
परस्पर समान भाव हो बस इतनी सी है आशा
न सहेगी साजिशें... पैदा होने के पहले की
जन्म पर अपने काटेगी हर चेहरे की निराशा
निशा के आवरण में कोई बूंद फिर न बिखरे
सम्बन्धों की परिधि में नित गढ़ती मुखर भाषा
अस्तित्व पर अब तक पड़े पर्दे हटा रही है
स्थायी अपने हित करती वक्त का हर पाशा
शालिनी श्रीवास्तव
Tags: Ballia News

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