बहुत दिनों बाद बलिया की डॉ. मिथिलेश को अमूल्य निधि से मिला 'सोना ही सोना'
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बहुत दिनों बाद कुछ लिखने का मन हुआ, किंतु तमाम कोशिश के बाद भी कोई विषय नहीं मिला तो मैं अमूल्य निधि रामायण को लिया और मुझे मिला...
सोना ही सोना
जब पड़ा अकाल जनकपुर में
नृप ने सोने का हल जोता।
स्वर्ण वसन लिपटी भूमिजा को
स्वर्ण पेटिका में देखा।।
हल के सीते (नोंक) से टकराई
सीता अति नाम पुनीता है।
भूमि से निकली थी भूमिजा
श्री,' नारायण हित आईं हैं।।
मैथिली ब्याह, जब आईं अवध
कैकेई मां दी कनक (सोने) भवन।
स्वर्णो की सीमा रह न सकी
सब रत्न जड़ित स्वर्णाभूषण।।
रघुनंदन का वनवास हुआ
वैदेही वन में साथ चलीं।
वल्कल वसन धरे तन पर
दिव्य भूषणों में लिपटीं।।
वह पंचवटी का स्वर्ण हिरन
मां के मन को अति ललचाया।
पुष्पक विमान था स्वर्ण जड़ित
लेकर रावन हरने आया।।
सोने सा खरा लिए तन मन
सीता स्वर्णिम लंका पहुंची।
रावण की माया छू न सकी
कंचन कमला (लक्ष्मी) थी तेजमयी।।
हनुमान मुद्रिका ले आये
चूड़ामणि सिय का हितकारी।
सीता की खोज कराने में
स्वर्णिम आभूषण उपकारी।
श्रीराम बल्लभा जनकलली
अग्नि में तपकर फिर निखरीं।
निज सुत संग वन में तप तप कर
इतिहास सुनहरा सुदृढ रचीं।।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का
यज्ञ सिया बिन कैसे हो??
तब राम प्रिया सीता सोने की
प्रतिमा बन संग में बैठीं।।
डॉ. मिथिलेश राय
जनाड़ी, बलिया (UP)
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