तृष्णा डायन के जाल में न फंसे



ऋषि चिंतन
👉"तृष्णा" आदमी को जरूरत से ज्यादा धन-दौलत और सुविधाओं को इकट्ठा करने के लिए उकसाती रहती है। सोच यही रहती है कि जितना अधिक ये चीजें रहेंगी, हम उतना ही सुखी और प्रसन्न हो जाएँगे, किंतु यह ख्याल एक धोखा ही सिद्ध होता है।
👉इंसान की जरूरतें बहुत थोड़ी सी हैं। उसकी बनावट ऐसी है कि थोड़े में ही उसका गुजारा हो जाता है। पेट भरने, शरीर को ढकने और परिवार के पालन-पोषण के लिए जरूरी चीजों का इंतजाम कुछ ही घंटों की मेहनत-मशक्कत करके पूरा हो जाता है। बाकी समय का उपयोग अपना सुधार करने, अपनी योग्यता बढ़ाने और भगवान के काम में कर सकता है। इस तरह की जिंदगी जीने वालों के लिए कोई बड़ी दिक्कत नहीं आती, पर कठिनाई तब होती है, जब "धन्ना सेठ" बनने की और बहुत सारा ठाट-बाट बटोरने की "सनक" दिमाग पर चढ़ी होती है।
👉यह "लालच" आदमी को चैन से बैठने नहीं देती है। ऐसे आदमी के दिमाग में हर घड़ी धन कमाने और उसे कमाकर मौज-मस्ती करने की बात घूमती रहती है। इसके वश में हुए व्यक्ति के लिए पैसा ही भगवान बन जाता है और किसी भी तरह उसे जोड़ना उसकी "पूजा" बन जाती है। सुख की आशा में वह धन-दौलत और ठाट-बाट के ढेर लगाता जाता है, किंतु इसके नतीजे उलटे ही निकलते हैं।
👉सबसे पहले तो इसके रख-रखाव की चिंता हर समय परेशान किए रहती है, कि कहीं कोई चोर, डाकू, सेंधबाज आदि इस पर हाथ साफ न कर ले। फिर ईर्ष्यालु और दुश्मन-बैरी लोग चैन से नहीं बैठने देते। नीचा दिखाने और बदनाम करने की हर कोशिश करते रहते हैं। चापलूस, ठग आदि भी दोस्त बनकर घात लगाए बैठे रहते हैं। बहुत सारा माल-टाल आदतों को बिगाड़कर तरह-तरह के व्यसनों में उलझा देता है और पता ही नहीं चलता कब शराब, नशा, नाच-रंग, ताश-चौपड़, खर्चीले शौक आदि जिंदगी के अंग बनते चले जाते हैं। समझदार और सही वारिस न मिलने पर इतनी भाग दौड़ कर इकट्ठा की गई संपदा यूँ ही बरबाद होने का डर अलग से सताता रहता है, जो चैन से मरने भी नहीं देता ।
👉धन-वैभव की चाह जितनी पूरी होती जाती है, यह उतनी ही बढ़ती जाती है। इंसान "ईमानदारी" से एक हद तक ही पैसा और ठाट-बाट कमा सकता है, पर जब इच्छा "इंद्र-कुबेर" की तरह ढेरों धन-वैभव पाने की हो, तो एक ही रास्ता बाकी बचता है और वह है "बेईमानी", "भ्रष्टाचार" का रास्ता। जब लालच के नशे में अक्लमंद आदमी की मति ही मारी जाए, तो फिर उसे गलत रास्ते में जाने से कौन रोके ? *बस "अनीति", "भ्रष्टाचार" के ढलवाँ रास्ते पर उसकी फिसलन शुरु हो जाती है। धन-दौलत और ठाट-बाट जितने बढ़ते जाते हैं, अपना स्वास्थ्य-शक्ति और ईमान-धर्म भी उतने ही खत्म होने लगते हैं, किंतु अपनी सारी शक्ति झोंकने पर भी उसकी इच्छा अधूरी ही रह जाती है। पूरी हो भी कैसे ? यह खाई तो इतनी गहरी है कि हिरण्यकश्यप, रावण, वृत्रासुर, सिकंदर जैसे महा पराक्रमी अपना पूरा दमखम दाँव पर लगाकर भी इसको भरने में थोड़ा सा भी सफल न हो सके थे, फिर आम आदमी का क्या कहना ? "तृष्णा" का यह कुचक्र इतना बड़ा, इतना भयानक और इतना अशांतिदायक है कि उसे अपनाकर मौज-मजा का स्वप्न कभी पूरा नहीं हो पाता।
👉दूसरा "अत्यधिक मोह", अपने प्रिय लोगों के नाम पर ढेरों धन-वैभव और सुविधाओं को विरासत में छोड़ने के लिए मजबूर करता है, किंतु यह मोह हर तरह से अपने वारिसों को तबाह करने वाला ही साबित होता है। "मुफ्त का माल" किसी को भी पचता नहीं। वारिस लोग इसे पाकर आरामतलब और आलसी ही बनते हैं और विरासत को लेकर लड़ाई-झगड़ा, मार-काट सो अलग। बैठे-ठाले मौज-मस्ती की सुविधा सामग्री जोड़ना आखिर उनको निकम्मा और बेईमान बनाने वाली एक गलत नीति ही सिद्ध होती है। किसी के भविष्य से खिलवाड़ करने वाला ऐसा मोह किसी भी तरह से ठीक नहीं है। इसकी जगह बेहतर हो कि अपने परिवार के लोगों को अपनी "मेहनत" और "ईमानदारी" के साथ अपना निर्वाह करने वाला "आत्मनिर्भर" इंसान बनाया जाए और ऐसे संस्कार-विचार दिए जाएँ, जो उनके जीवन भर काम आएँ।
मानव जीवन की गरिमा पृष्ठ ०९
🍁।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।🍁
विजेंद्र नाथ चौबे, गायत्री शक्तिपीठ, महाबीर घाट गंगाजी मार्ग बलिया

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