ऋषि चिंतन : असली रूप का बिगड़ा हुआ चेहरा हैं अहंता



29 जुलाई 2025 मंगलवार
श्रावण शुक्लपक्ष पंचमी २०८२
ऋषि चिंतन
👉"अहंता" अपने असली रूप का बिगड़ा हुआ चेहरा है, जो बेढ़ंगा दिखावा करने के लिए उकसाता रहता है। अपने असली रूप और औकात की जगह बाहरी चीजों से जुड़ने पर अपना आपा अहंकार का रूप ले लेता है। यह "शारीरिक सुंदरता", "होशियारी", "ताकत", "धन-दौलत", "पद"-"अधिकार" आदि किसी भी वजह से हो सकता है। इसके कई रूप हैं, पर मकसद एक ही है, वह है "अपने को दूसरों से बड़ा साबित करना", उन पर अपनी छाप छोड़ना और ऐसा दिखावा करना कि दूसरों पर अपना रौब जमा सके। अहंकार के वश में आदमी दूसरों को घटिया मानता है और अपने बड़प्पन-महानता को साबित करने पर उतारू होता है। इसके लिए हर तरह के तरीके भी अपनाता है। यह मनुष्य से जुड़ी एक "अजीब-सी गड़बड़ी" है, जो उसकी कदम-कदम पर तरह-तरह के नाटक-नौटंकियाँ करने के लिए मजबूर करती रहती है। यह ऐसा "धोखा" है, जो अपने दिखावे के लिए पाखंड खड़ा करने के लिए भड़काता रहता है। मोटे अर्थों में घमंड, अकड़, गुस्सा, असभ्य व्यवहार, शेखीखोरी आदि इसके निशान माने जाते हैं, किंतु यह इससे अधिक गहराई और फैलाव लिए हुए है।
"फैशनबाजी", "सजधज", "ठाट-वाट", "श्रृंगार", "विज्ञापनबाजी", "शादी-विवाह" में होने वाले खर्च आदि इसी परिवार के सदस्य हैं। यह बड़प्पन प्रदर्शन की कमजोरी ही महिलाओं को अजीबोगरीब "फैशनबाजी", "लीपापोती" करने और "गहने लादने" के लिए उकसाती रहती है। पुरुष भी ठाट-बाट के अनेकानेक जुगाड़ भिड़ाते रहते हैं। यह एक "नशा" है, जिसमें समझदारों को "बचकनेपन" और "ओछेपन" की गंध आती है।
👉जिस तरह अनावश्यक धन-दौलत, वैभव-संपदा इकट्ठा करने पर हजारों परेशानियाँ खड़ी होती हैं, ठीक वैसे ही "अहंकार" भी मनुष्य को कई तरह के झंझटों में उलझाए रहता है। अहंकारी व्यक्ति के बिना कारण ही शत्रु बढ़ते जाते हैं, क्योंकि उसमें "अपनी बड़ाई" और "दूसरों की निंदा" का भाव जोर मारता रहता है और दूसरा व्यक्ति भी बेमतलब क्यों अपने को घटिया माने ? सामने शिष्टाचार या भयवश अहंकारी की बात मान भी ले, किंतु अंदर उसकी पहचान एक उथले-बचकाने, सनकी-ढीठ जैसे उपेक्षा और घृणा भरे भात्रों से ही करता है।
👉"अहंकार" का खेल-तमाशा बहुत महँगा ही पड़ता है। चकाचौंध पैदा करने के लिए स्वाँग और पाखंड खड़े करने पड़ते हैं। "अहंकार" जताने से ईर्ष्या ही भड़कती है। लड़ाई-झगड़े और कड़वाहट आमतौर पर इसी वजह से पैदा होते हैं। ऐसे व्यक्ति का न कोई दोस्त बन पाता है और न शुभचिंतक। "समझदार" व्यक्ति इसे "दूर से ही प्रणाम" करते हैं। बस "चापलूस" ही उसको घेरे रहते हैं। वे भी अपना स्वार्थ पूरा करने की फिराक में रहते हैं और इसके पूरा होते ही खिसक लेते हैं।
👉इसका "मायाजाल" ऐसा है कि इससे निकलना तो दूर इसको समझ पाना तक कठिन हो जाता है। कब इसने पूरे व्यक्तित्व को ढक लिया, पता ही नहीं चलता। इसी में उलझे "साधु-महात्मा" लोग तक अपनी महानता, साधना और सिद्धि का ढिंढोरा पीटते रहते हैं और भोले-भावुकों को अपने भ्रमजाल में फँसाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।अहंकार मित्र को शत्रु बना देता है और अपने को पराया। दूसरों के हिस्से में श्रेय-पद न जाने देने के लिए उन्हें गिराने, बदनाम करने के कुचक्र रचता रहता है। हर कीमत पर अपने आपको बड़ा सिद्ध करना और इसके लिए एड़ी-चोटी तक पसीना बहाने जैसी कोशिशें इसी के बहकावे में होती हैं।
मानव जीवन की गरिमा :पृष्ठ ११
।।पं श्रीराम शर्मा आचार्य।।
विजेन्द्र नाथ चौबे
गायत्री शक्तिपीठ, महावीर घाट, गंगा जी मार्ग बलिया।

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