बलिया की यह खंडहर इमारत बोली- 'जिन्दा नहीं एक लाश हूं मैं...'
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जिन्दा नहीं एक लाश हूं मैं
एक मरा हुआ अहसास हूं मैं
सुर जिसका साथ छोड़ चुके हो
वो साज हूं मैं
अब वो जगमगाती इमारत नहीं
सिर्फ खंडहर हूं
खिला हुआ गुलशन नहीं
मुरझाया हुआ बाग हूं मैं
ये चंद पंक्तियां उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की बैरिया तहसील अंतर्गत दुबेछपरा के मुख्य सड़क से चंद कदमों की दुरी पर स्थित 'साहु की कोठी' पर सटीक बैठती है। लगभग डेढ़ शतक पहले बनी ये कोठी किसी रजवाड़े की हवेली या मुग़ल शासक के किले से कही भी कम नहीं।
नजर घुमाने पर कोठी में तब भी हर सुख-सुविधा के निशान नजर आते है। यहां तक की पाले गए हाथियों के रहने के लिए 'हथिसार' भी बनया गया था। इमारत की दीवारों पर की गई काशीदकारी इसकी शोभा अलग ही बढ़ाते है। कई बीघे में स्थापित इस कोठी के एक भाग में ठाकुरबाड़ी भी है। कोठी के सबसे बड़े भाग में राजकीय आयुर्वेदिक अस्पताल का संचालन होता है। कुछ कमरों में स्थानीय स्कूलों में पढ़ाने वाले दूर-दराज के अध्यापक रहते है।
कोठी के एक भाग में लगभग दो दशक तक डाकघर का संचालन होता रहा, जो अब अन्यत्र स्थापित हो चुका है। डाकघर के अन्यत्र स्थापित हो जाने से कब्जाधारियों के हौसले बुलंद हो गए।आलम यह है कि कोठी के अधिकांश हिस्से पर स्थानीय लोगों का अवैध व गैरकानूनी कब्जा हो चुका है। इस कोठी के प्रांगण में जहां कभी हाथी बंधी होती थी, अब वही कब्जाधारियों द्वारा भैंस और बकरी बांधी जाती है। इस इमारत से महज सौ कदम पर गंगा की धारा भी अठखेलियां कर रही है। इस कारण इमारत के अस्तित्व मिटने की आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता।
जनश्रुति व क्षेत्र के प्रबुद्धजनों के अनुसार दुबेछपरा निवासी पूर्णानंद साहू की तब विशाल जमींदारी होती थी। पूर्णानंद साहू सामाजिक सरोकार से जुड़े कार्यो में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते लेते थे, जिसका जीवंत उदाहरण दूबेछपरा का पूर्णानन्द इंटरमीडिएट कॉलेज है। कालांतर में पूर्णानंद साहू के वंशज अन्यत्र चले गए। वंशज यहां से गए तो फिर मुड़कर आये ही नहीं।
हां इतना अवश्य है कि कोठी में स्थापित ठाकुरबाड़ी में पूजा-पाठ व भोग लगता रहे, इसके लिए एक पंडित भी रख रखा है। ठाकुरबाड़ी का देखरेख कर रहे पंडित के जीविकापार्जन हेतु किसी ग्रामसभा में फसली जमीन भी दे रखी है।यदि इस साहू के कोठी को ऐतिहासिक कोठी कहा जाए तो गलत नही होगा।
बलिया से रवीन्द्र तिवारी की खास रिपोर्ट
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