बलिया : सिर पर गठरी, हाथ में नन्हीं बेटी का हाथ और नजर पर 'घर', पैदल ही सफर
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बैरिया, बलिया। लाक डाउन के दौरान देश के विभिन्न प्रांतों में काम करने वाले बिहार के प्रवासी कामगारों के पैदल जाने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। रोज सैकड़ों की संख्या में महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, बुजुर्गों का कारवां सर पर गठरी लिए बिहार की तरफ जाते दिखाई दे रहा है। तन पर गंदे कपड़े, चेहरे पर पसीना, धूप से चेहरा लाल होने के बावजूद तेज धूप को सहते हुए लगातार पैदल चले जा रहे हैं।
कोई छत्तीसगढ़ से चला है, उसे खगड़िया जाना है। कोई सिरसा से चला है, उसे कटिहार जाना है। ऐसे लोग हजारों मील की यात्रा करते हुए किसी हाल में अपने गांव, अपने घर, अपने परिवार के बीच पहुंचना चाह रहे हैं। बड़ा प्रांत होने के बावजूद अपने कामगारों को लाने के लिए जो दृढ़ इच्छाशक्ति उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने दिखाया है, वह अद्वितीय व प्रशंसनीय कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
सोमवार को सैकड़ों लोग पैदल बिहार की तरफ जा रहे थे। उसमें एक विधवा महिला सुनीता देवी अपने आठ वर्षीय बेटी का हाथ पकड़े सर पर गठरी लिए पैदल ही बिहार जा रहा थी। उनकी स्थिति देख मन में दया का भाव जागृत हुआ। वहीं व्यवस्था के प्रति मन में आक्रोश भी जगा। आखिर आज 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसे लोगों के लिए आजादी का क्या अर्थ है। जब उस महिला से पूछा कि आप कहां से आ रही है? कहां जाएंगी ? तो उसने बताया कि मैं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से आ रही हूं, खगड़िया जाना है। वहां दाई का काम करती थी। कोरोना वायरस का संक्रमण व लॉक डाउन के चलते काम मिलना बंद हो गया। पैसा नहीं होने के कारण पैदल ही अपनी बेटी के साथ घर को चल दिए। जिंदा रही तो जरूर अपने पहुंच जाऊंगी। जब उस नन्हीं सी जान से जिसके नन्हें पांव ने पिछले 15 दिनों में यात्रा पैदल तय की थी, और केवल रोती रही। कुछ भी नहीं बोल पाई।
किसी तरह बिस्कुट आदि देकर उसे चुप कराया गया। इस तरह के मार्मिक दृश्य बार-बार दिख रहा है। लोग बदहाल, फटेहाल बिहार में अपने घर की तरह भागे जा रहे हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि जिला प्रशासन को ऐसे लोगों को रास्ते में रुकने और भोजन कराने की व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि सुरक्षित बिहार की सीमा को उक्त लोग पार कर जाएं।
शिवदयाल पांडेय 'मनन'
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