बलिया : सुहागन की व्यथा सुन पत्रकार को याद आयी 'गिद्घ' की कहानी
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90 के दशक में एक कहानी पढ़ी थी, शीर्षक था- गिद्ध। बचपन से पढ़ने का शौक था, बस कोर्स की किताबें देखकर नींद आती थी।
हां, बात हो रही थी गिद्ध की। उस वक्त हिंदी साहित्य की नामचीन पत्रिका #वागर्थ के एक अंक में यह मार्मिक कहानी थी। एक हादसे की पृष्ठभूमि भूमि पर तैयार कहानी में कुछ लोग हादसे में घायल या अधमरे या मर चुके लोगों को गिद्ध की तरह नोच रहे होते है। एक की उंगली से अंगूठी नहीं निकल रही थी, तो उसकी उंगली ही काट दी।
तब मैंने उसे एक कहानी के रूप में पढ़ा था। यूं भी कह सकते हैं कि टाइम-पास का बेहतर जरिया उस वक्त पढ़ना ही था। लेकिन आज दो-ढाई दशक बाद ऐसे हालात सामने आ गए कि #गिद्ध की धुंधली तस्वीर आंखों के आगे नाच गयी।
कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए देश में लॉकडाउन लागू है। सबसे मुसीबत में वे लोग है, जो बाहर फंसे हैं। काम भी बंद है। पेट भरने पर भी आफत। उन्हें घर भेजने के लिए सरकार मुफ्त में ट्रेन और बसें चला रही हैं। लेकिन कुछ लोगों की नजर भूख, बेबसी और बेकारी से जिंदा रहकर भी मर चुके मजदूरों को नोंच खाने का आतुर है।
गुजरात के राजकोट से बलिया आयी एक महिला को परिवार के लिए ट्रेन का टिकट खरीदने में सुहाग की निशानी मंगल सूत्र बेचना पड़ा। पुलिस चौकी में रजिस्ट्रेशन के नाम पर एक हजार रुपये लिये गए। अन्य यात्री भी टिकट का पैसा दिये थे। आंध्र प्रदेश से ट्रेन आयी तो उसके यात्रियों ने भी टिकट के अतिरिक्त एक हजार रुपये दिए। किसी के पास पैसे नहीं थे, तो फैक्ट्री मालिक ने फोकट में दो दिन काम करने का ऑफर दिया। मान गए। क्या करते, किसी तरह घर आना था।
अब बताइये, कहते हैं कि गिद्ध खत्म हो चुके हैं। जी नहीं, आज भी जिंदा है। बस हुलिया बदल लिया है। यार कम से कम इस महामारी में तो बख्श दिए रहते।
बलिया के वरिष्ठ पत्रकार धनंजय पांडेय की फेसबुक वाल से
Tags: बलिया


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