सनबीम बलिया के निदेशक को याद आया 'वो' बचपन, जब बने थे 'सहबलिया'
जाने कहां गए वो दिन...!?
आज बात "सहबलिया" की। सहबलिया मतलब दूल्हे का छोटा भाई। हम में से बहुत से लोग सौभाग्यशाली होगें जिन्हें सहबलिया बनने का मौका जरुर मिला होगा। और बहुत से ऐसे भी होंगे जो सहबलिया तो बन पाए लेकिन अभी दूल्हा बनने का मौका नहीं मिल पाया। हमारे समय में शादी की तारीख नजदीक आते ही जितनी चिंता और घबराहट दूल्हे को होती उससे तनिक भी कम चिंता सहबलिया को नहीं रहती। क्योंकि यह दायित्व भी इतना आसान नहीं था।
बच्चे ने होश सम्भाला नहीं कि घर-परिवार में उसके सहबलिया बनने की चर्चा आम हो जाती। चोट लगने पर रोने की बात हो या किसी भी वस्तु की पाने की जिद्द के लिए रोने की बात हो, तभी से चुप कराने के लिए एक गोदी से दूसरे गोदी मे पहुंचने तक एक ही आश्वासन दे कर मना लिया जाता कि "बबुआ को तो फलाने का सहबलिया बनना है।" हालांकि अभी "वो फलाने" की शादी का कोई अता पता नहीं लेकिन सहबलिया बनने का बैन बट्टा पक्का। भाई साहब तब बिना जाने बिना समझे ग़ज़ब की राजाओं जैसी feeling आती। और तभी से आँखों में जो सपने पलने शुरू हो जाते कि जैसे किसी राज्य का अगला उत्तराधिकारी ही घोषित कर दिया गया हो बस... उसकी व्याख्या करना आज बहुत कठिन सा लग रहा है। और तब फिर सहबलिया बनने की आगे की यात्रा जैसे शुरू - - अपने बड़े भाई का, चचेरे बड़े भाई का, ममेरे - फुफेरे बड़े भाई का और इतना ही क्यों अगर दयादी - पटिदारी में भी कोई छोटा भाई नहीं है तो वहां भी सहबलिया बनने के चांस 100% प्रबल ही समझिए।
सहबलिया की भी अपनी एक Category होती यानि कि कौन मुख्य सहबलिया होगा और कौन-कौन शामिल बाजा। मुख्य सहबलिया ही दूल्हे के साथ असवारी, कार, जीप में बैठने का अवसर मिलता और मुख्य-मुख्य समय पर दूल्हे के एकदम परछाई की तरह साथ-साथ रहने का। शामियाने में भी लाल मखमली सिंहासन पर वही दूल्हे के साथ विराजमान होगा और बाकी के सब वहीं नीचे दूल्हे के दाएँ बाँए। वास्तव में उस समय विशेष की मनोदशा का वर्णन मनोवैज्ञानिकों के लिए भी आसान नहीं होगा।
सहबलिया बनने के अपने कुछ फायदे और नुकसान थे। हालांकि मानसिक दोहन और शोषण भी खुब होता लेकिन फायदे के मुकाबले कुछ कम ही था। शोषण मतलब जबतक बड़े भाई की शादी नहीं हो जाती तब तक गार्ड की तरह मुस्तैदी से दूल्हे राजा के सभी आदेशों का पालन करते रहिए वर्ना धमकी यह की सहबलिया Replace कर देंगे तो स्टैटस झिन जाने का खतरा अलग और मानसिक दोहन कुछ यूँ कि लड़की पक्ष के सभी लोगों के खासकर साली - सलहज के सारे ताने- उलाहने, कटाक्ष, हंसी ठिठोली सुनते सहते हुए भी मुस्कुराते रहने की हरसंभव कोशिश करना। बाप रे! अनगिनत सवाल होते थे लड़की पक्ष की महिलाओं के भी... जैसे किसी इंटरव्यू के लिए रैपिड राउंड चल रहा हो।
और फायदा ये कि वरियता विषेश के क्रम में दूल्हे के जैसे ही कपड़ा बनता और साथ ही दूल्हे के बाद का सारा attention सहबलिया को ही मिलता। ना चाहते हूए भी बरबस ही अपने हमउम्र साथियों के बीच हीरो जैसा महसूस हो ही जाता। पहले की शादियों में खाना बहुत देर से मिलता था। आज की तरह नहीं कि जयमाला शुरू हुआ नहीं कि पूरी बरात खाना खाकर फरार। खाना खाने के लिए भी विशेष तरीके के मान - मनुहार का प्रचलन रहा है। जब तक लड़की पक्ष द्वारा अंज्ञया- विजय न हो जाए और बारात के मालिक का अनुरोध और विजय की घोषणा ना हो जाए तब तक पूरी बारात अपने जगह से टस से मस नहीं होती। हाँ लेकिन वहां भी सहबलिया और बड़े बुजुर्गों के लिए विशेष व्यवस्था रहती। लड़की वाले अंज्ञया मांगने आते तो अपने साथ ही दऊरी, खोंइची, ओडा में- पूडी, सब्जी, बुनिया और कहंतरी में दही लेते आते और वहीं शामियाने में ही बड़े-बुजूर्गों के साथ ही सहबलिया को भी भोजन जिमवाते। बच्चों का तो जैसे सब्र ही जबाब दे जाता कि ना जाने विजय कब होगा। अधिकतर गुरहथी के बाद ही विजय होता।
सहबलिया होने का असली मज़ा तो सुबह शादी बीत जाने के बाद समझ आता जब दूल्हे के साथ आँगन में सूजी के गर्मा- गरम हलवे और लाल मिर्च के भरवा अचार के साथ बड़े मान- मनुअवल के बाद नाश्ता कराया जाता और फिर बारी आती कमाई की जब पूरे गांव-घर के लोगों द्वारा दूल्हे के साथ-साथ सहबलिया को भी ढेर सारा नगदी और समान जैसे -कपड़े, रुमाल, कंघी, ऐनक, इत्र आदि उपहार स्वरूप मिलता। भाई साहब तब जेब के साथ ही खुशी और प्रसन्नता के वजन की कीमत लगा पाना अपने हमउम्र साथियों के लिए कम ईर्ष्या का विषय नहीं था। बहुत दिनों तक यार- दोस्तों में अनचाहे अबोले का सामना करना पड़ता सो अलग झंझट.. लेकिन तब भी अकड़ और हेकड़ी तो जैसे साम्राज्य जीत लेने जैसा। और फिर से एक नई शादी और सहबलिया बनने का इंतजार शुरू.....
हां सच में, वो भी क्या दिन थे !?!
साभार : डॉ कुंवर अरूण कुमार सिंह, निदेशक सनबीम स्कूल बलिया की फेसबुकवाल से
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