वैश्विक महामारी को न बनाएं 'तीसरी फसल'

वैश्विक महामारी को न बनाएं 'तीसरी फसल'


संघर्ष किसी न किसी रूप में पृथ्वी पर हमेशा विद्यमान रहा है और सच्चाई यही है कि संघर्षों को समाज से कभी पूर्णतया समाप्त नहीं किया जा सकता। राजनैतिक संघर्ष हो, जनजातीय संघर्ष हो, विचारधारा का संघर्ष हो या धार्मिक संर्घष हो या फिर अन्य कोई... संघर्ष किसी न किसी रूप में समाज के समक्ष विद्यमान रहता है। 

फिलहाल विश्व में भी किसी न किसी रूप में संघर्ष चल रहा है। लेकिन एक विचारणीय प्रश्न है, क्या संघर्षों को इतना व्यापक और नकारात्मक  हो जाना चाहिए कि मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ जाए ? वर्तमान समय में एक वैश्विक महामारी ने जिस प्रकार से अपना पैर पूरी दुनिया में पसारा है, निश्चित रूप से एक चिंतनीय विषय है। इसका दोष चीन, अमेरिका, रूस या कोई और देश... एक दूसरे को आरोपित करें, लेकिन यह बात सत्य है कि एक तरफ जहां खतरनाक हथियारों की होड़ में पूरा विश्व लगा हुआ था, वहां एक प्रकार से नई परंपरा की कोरोना जैसी वैश्विक महामारी ने पूरे मानव सभ्यता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

इस संदर्भ में यदि पूरे विश्व में भारत की स्थिति की परिचर्चा करें तो निश्चित रूप से भारत एक विशाल लोकतांत्रिक देश है। यहां पर विभिन्न परंपराओं के लोग, विभिन्न भाषाओं और विभिन्न विचारधाराओं के लोग रहते हैं। ऐसी स्थिति में भारत में अनेक विचारधाराओं में संघर्ष दिखाई देता है, लेकिन प्रश्न यह है कि जब मानव सभ्यता ही नहीं रहेगी तो किसी भी प्रकार की विचारधारा अपने को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने के लिए कितने दिन तक संघर्ष कर पाएगी। 

किसी भी समाज और राष्ट्र से संघर्षों को समाप्त नहीं किया जा सकता है, लेकिन कम किया जा सकता है। इस वैश्विक महामारी में भारत में  बेहतरीन सोच रखने वाले डॉक्टर, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस, रेल, शिक्षा व परिवहन इत्यादि विभाग तथा समाज के अनेक लोगों द्वारा सकारात्मक कार्य किए जा रहे हैं। वही, कहीं-कहीं यह भी देखने को मिल रहा है कि इस आपदा में मानव समाज से संवेदनशीलता ही समाप्त हो रही है। प्रो. नामवर सिंह के शब्दों में 'जिस व्यक्ति या समाज में संवेदनाएं मर जाती हैं, वह समाज मृत  समान हो जाते हैं'। 

मैंने एक पुस्तक कुछ दिन पहले पढ़ा है, जिसका नाम है 'तीसरी फसल'। इसके लेखक पी. साईनाथ जी है। इस पुस्तक का भावार्थ है कि दुनिया के गरीब और किसान मिलकर दो फसल उगाते हैं, एक रवि और एक खरीफ। लेकिन जब किसी देश और समाज में आंधी, तूफान-बाढ़, कोरोना वायरस जैसी महामारी आदि ऐसे प्राकृतिक आपदा आती है तो उस समय एक तीसरी फसल आर्थिक भ्रष्टाचार के रूप में उगती है, जिसको काटने के लिए भ्रष्टाचारी, प्रभावशाली और असंवेदनशील व्यक्तित्व सम्मिलित हो जाते हैं। 

इस प्रकार के नकारात्मक विचारधारा के लोग दार्शनिक नहीं होते हैं और उनका स्व का हित सर्वोपरि हो जाता है। इस वैश्विक महामारी में जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परमाणु शस्त्र भी बौने पड़ जाए और मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ जाए। कहीं ना कहीं सवाल उठता है कि क्या हम इस विचारधारा से मानव सभ्यता की रक्षा कर पाएंगे। यह एक हम सभी के समक्ष विचारणीय प्रश्न है?


उमेश कुमार सिंह 
राजनीति शास्त्र
BHU वाराणसी

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