काजर की कोठरी में बेदाग रहे रघुबंश बाबू
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रहीम कवि का एक दोहा है...
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
रघुवंश प्रसाद सिंह पर यह दोहा सटीक बैठता है। निजी चर्चाओं में अपनी पार्टी को वे विषधरों जैसी बताते रहे... हालांकि पूरी जिंदगी उनकी शीतलता नहीं गई।
जननायक कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद लगातार 35 वर्षों तक अहर्निश पीठ पीछे खड़े रहने की बात अभी कुछ ही दिन पहले डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने कही थी। राजनीति और आम लोगों के बीच रघुबंश बाबू के सम्माननीय और प्यारे नाम से विख्यात थे। अभी दस सितंबर को ही उन्होंने उस लालू यादव के पीठ पीछे चलने से इनकार कर दिया था। हालांकि लालू यादव ने जवाबी चिट्ठी लिखकर झिड़की दी थी.. और एक तरह से साथ ना छोड़ने का ऐलान कर दिया था।
लेकिन रघुबंश बाबू काजर की कोठरी में अब ना शामिल होने की जैसे ठान ली... जिसके साथ पैंतीस साल रहे हों.. उससे रागात्मक रिश्ता तो हो ही जाता है... हो सकता है कि प्यार भरी झिड़की और मनुहार के बाद उन्हें लालू के साथ खड़ा होना ही पड़ता, लेकिन नियति ने यह मौका आने ही नहीं दिया। रघुबंश बाबू महाप्रयाण कर गए।
दैनिक भास्कर में मुझे राष्ट्रीय जनता दल भी कवर करना पड़ता था... तब लोकसभा में रघुबंश बाबू ही राष्ट्रीय जनता दल के नेता थे। उनसे रिपोर्टर के नाते मिलने का मौका मिलता रहा.. हालांकि घरापा जैसी नजदीकी कभी नहीं रही। लोकसभा में उनकी सीट आसन की बाईं ओर से दूसर खाने की तीसरी पंक्ति में थी। वाजपेयी सरकार के खिलाफ कई मौकों पर राष्ट्रीय जनता दल के नेता अक्सर आसंदी के पास चले जाते। बिहार की राबड़ी सरकार पर सवाल उठते। लालू के भ्रष्टाचार पर सवाल उठते तो राजद सांसद हंगामा करने में पीछे नहीं रहते थे, लेकिन रघुबंश बाबू कभी अपनी सीट छोड़कर आगे नहीं बढ़ते थे। उन दिनों राजद की ओर से आसंदी को घेरने का काम नागमणि करते थे। पता नहीं आजकल वे किस दल में हैं।
रघुबंश बाबू संसद की मर्यादा समझते थे। आपसी बातचीत में अक्सर वे इसका जिक्र किया करते थे। लेकिन संसद में जब भी लालू यादव, राजद या बिहार की तत्कालीन सरकार पर सवाल उठते, रघुबंश बाबू की बुलंद आवाज गूंजने लगती। हालांकि सदन की कार्रवाई के बाद वे कहा करते, 'चोरवा सब तो हमरी पार्टी में कम नहीं है, बाकिर पार्टी अनुशासन खातिर उनको बचाना ही पड़ता है।' जाहिर है, यह जिक्र ऑफ द रिकॉर्ड ही होता था.. लिहाजा पत्रकार कभी इसे लिखते नहीं थे। अक्सर वे अपनी पार्टी के भ्रष्टाचार का ऑफ द रिकॉर्ड जिक्र भी करते...। आज की राजनीति में एक वर्ग को लालू भले ही मसीहा लगते हों.. लेकिन एक बड़ा वर्ग उन्हें काजर की कोठरी मानता है। भले ही उनके समर्थक उन्हें पाकसाफ मानते हों, लेकिन उनके विरोधी उनकी जेल यात्रा को उनके कर्मों का फल ही मानते हैं।
लालू को लेकर सामान्य धारणा तो काजर की कोठरी जैसी ही है। इसी काजर की कोठरी में रघुबंश बाबू भी रहे, वह भी बेदाग। यह उनकी उपलब्धि ही कही जाएगी। लेकिन उन पर सवाल भी रहेंगे कि काजर की कोठरी को उन्होंने कभी उजली बनाने की कोशिश क्यों नहीं की ? और नियति देखिए कि जब उन्होंने उस कोठरी से निकलने की कोशिश की... उन्हें मौका ही नहीं मिला। निजी जीवन में बेल्लौस विचार रखने वाले प्रोफेसर साहब को विनम्र श्रद्धांंजलि...
वरिष्ठ पत्रकार व आकाशवाणी प्रसार भारती के सलाहकार उमेश चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से
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