पूर्वांचल में प्राकृतिक संसाधन एवं वनावरण की बेहद कमी
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बलिया। वर्तमान समय में प्रकृति प्रदत्त सभी संसाधन मानव की भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की गतिविधियों के कारण समाप्त होते जा रहे हैं। कुछ तो सदैव के लिए समाप्त भी हो गये हैं। इसमें न केवल प्रकृति प्रदत्त खनिज संसाधन, बल्कि पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के सभी कारकों सहित जैव विविधता भी समाप्त होती जा रही है। फलतः हमारी धरती पर प्राकृतिक असंतुलन बढ़ता जा रहा है। हमारी धरती विनाश के कगार पर खड़ी हो गयी है। इस विनष्ट होती प्रकृति को को बचाने में कहीं देर न हो जाए, अन्यथा पृथ्वी के सम्पूर्ण विनाश को रोकना किसी के बस की बात नहीं रह जायेगी।
पर्यावरणविद् डा. गणेश कुमार पाठक के मुताबिक प्रकृति के विनष्ट होने का सबसे अहम् कारण यह है कि प्रकृति प्रदत्त जितने भी महत्वपूर्ण संसाधन रहें हैं, उनका उपयोग हमने बिना सोचे-समझे अपनी विकासजन्य गतिविधियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अतिशय दोहन एवं शोषण के रूपमें किया है, जिसके चलते अधिकांश प्राकृतिक संसाधन समाप्ति के कगार पर हैं। हमारी गतिविधियों के कारण वन क्षेत्र निर्जन हो गये। पहाड़ सपाट हो गये। नदियां सूखती जा रही हैं, जल संसाधन समाप्त होते जा रहे हैं। इस तरह देखा जाय तो प्रकृति प्रदत्त सम्पूर्ण संसाधन ही समाप्त होते जा रहे हैं, जिसके चलते प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। फलस्वरूप विविध प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं को लाकर प्रकृति भी हमसे बदला लेना प्रारम्भ कर दी है। स्पष्ट है कि यदि प्रकृति पूर्णरूपेण रूष्ट होकर हमसे बदला लेना प्रारम्भ कर देगी तो उस स्थिति में इस धरा को बचाना ही मुश्किल हो जायेगा।
प्राकृतिक संसाधनों एवं वनावरण की बेहद कमी है पूर्वांचल में
बलिया सहित पूर्वांचल के सात जिले प्राकृतिक संसाधनों से विहिन एवं वन विहिन क्षेत्र हैं। सोनभद्र, मिर्जापुर एवं चंदौली जिलों को छोड़ दिया जाय तो बाकी सात जिलों- बलिया, मऊ, आजमगढ़, गाजीपुर, जौनपुर, संत रविदासनगर एवं वाराणसी में न तो कोई प्राकृतिक संसाधन हैं और न ही प्राकृतिक वनस्पतियां। प्राकृतिक वनों की स्थिति तो यह है कि इन सात जिलों में एक प्रतिशत से भी कम प्राकृतिक वनस्पतियाँ हैं। संसाधन के नाम पर एकमात्र जल संसाधन है। धरातलीय जल के रूपमें प्राप्त नदियाँ भी सूखती जा रही हैं।
ताल- तलैया भी सुख गये हैं, जिन पर लोगों ने कब्जा कर रखा है। भूमिगत जल संसाधन की स्थिति भी बेहद खतरनाक स्थिति में है। भूमिगत जल निरन्तर नीचे खिसकता जा रहा है एवं प्रदूषित भी होता जा रहा है। अनेक क्षेत्रों में भूमिगत जल डार्कजोन में आ गया है। इस तरह सम्पूर्ण पूर्वांचल का क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों की कमी एवं वनावरण की कमी के कारण पर्यावरणीय दृष्टि से अति असंतुलित है, जिसके चलते यह क्षेत्र कभी अनावृष्टि तो कभी अति वृष्टि, कभी सूखा तो कभी बाढ़, आँधी-तूफान, मिट्टी क्षरण, जल प्रदूषण, मिट्टी प्रदूषण, शीत लहर एवं ताप लहर जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहा है और इस क्षेत्र का विकास कुँठित हो गया है। इस तरह यह पूर्वांचल का क्षेत्र भी प्राकृतिक संसाधनों की कमी एवं पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी असंतुलन से अछूता नहीं है।
कैसे हो इनका समाधान
प्रकृति को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने लिए हमें येन-केन-प्रकारेण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के कारकों, जैव विविधता एवं प्राकृतिक संसाधनों को विनष्ट होने से बचाना होगा। यह मात्र किसी सरकार ,उद्योगपति या नागरिक की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि इसमें सबकी भागीदारी सुनिश्चित होना चाहिए और प्रकृति के विनाश से होने वाले दुष्परिणामों से आम जनता को जागरूकता के माध्यम से अवगत कराना चाहिए। आज हमें भारतीय चिन्तन एवं भारतीय संस्कृति में निहित अवधारणाओं को पुनः पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। भारतीय चिन्तन परम्परा में पूरी प्रकृति के संरक्षण हेतु संकल्पनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। भारतीय संस्कृति अरण्य संस्कृति रही है। हम प्रकृति की छत्रछाया में रहे हैं। प्राकृतिक अनुराग एवं प्रेम हमारे कण- कण में रचा- बसा है। यही कारण है कि अभी हम कुछ हद तक सुरक्षित है।
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