जब तक करेंगे प्रकृति का शोषण, नहीं मिलेगा किसी को पोषण

जब तक करेंगे प्रकृति का शोषण, नहीं मिलेगा किसी को पोषण


बलिया। विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस के अवसर पर अमर नाथ मिश्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय दूबेछपरा, बलिया के पूर्व प्राचार्य एवं समग्र विकास शोध संस्थान बलिया के सचिव पर्यावरणविद् डा. गणेश कुमार पाठक का कहना है कि प्रकृति हमारी भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन की गतिविधियों के कारण आज विनाश के कगार पर खड़ी है। इस विनष्ट होती प्रकृति को को बचाने में कहीं देर न हो जाए, अन्यथा पृथ्वी के सम्पूर्ण विनाश को रोकना किसी के बस की बात नहीं रह जायेगी। 
प्रकृति के विनष्ट होने का सबसे अहम् कारण यह है कि  प्रकृति प्रदत्त जितने भी महत्वपूर्ण संसाधन रहें हैं, उनका उपयोग हम बिना सोचे- समझे अपनी विकासजन्य गतिविधियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अतिशय दोहन एवं शोषण के रूपमें किया है, जिसके चलते अधिकांश प्राकृतिक संसाधन समाप्ति के कगार पर हैं। हमारी गतिविधियों के कारण वन क्षेत्र निर्जन हो गये, पहाड़ सपाट हो गये, नदिययां सूखती जा रही हैं। इस तरह देखा जाय तो प्रकृति प्रदत्त सम्पूर्ण संसाधन ही समाप्त होते जा रहे हैं, जिसके चलते प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न होती जा रही है। फलस्वरूप विविध प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं को लाकर प्रकृति भी हमसे बदला लेना प्रारम्भ कर दी है।  स्पष्ट है कि यदि प्रकृति पूर्णरूपेण रूष्ट होकर हमसे बदला लेना प्रारम्भ कर देगी तो उस स्थिति में इस धरा को बचाना ही मुश्किल हो जायेगा।

हमारी भारतीय संस्कृति में निहित अवधारणाएं इतनी इतनी उपयोगी एवं सबल हैं कि उनका पालन कर हम प्रकृति का संरक्षण कर सकते हैं और कर भी रहे हैं। हमारी संस्कृति, सभ्यता, आचार, विचार , व्यवहार, परम्पराएँ, रीति- रिवाज , हमारी दिनचर्या ऐसी है कि अगर हम उसके अनुसार रहें तो निश्चित ही प्रकृति को हम सुरक्षित एवं संरक्षित कर प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकते हैं। जहां तक प्राकतिक रूप से धरती को बचाने की बात है तो कोरोना ने विश्व की गतिविधियों को जिस तरह से रोक दिया है, उससे पर्यावरण के कारकों में काफी सुधारात्मक लक्षण देखने को मिल रहे हैं । इससे इस बात की तो पुष्टि हो ही जा रही है कि हम प्रकृति के कारकों से जितना ही कम छेड़-छाड़ करेंगे, पर्यावरण सुरक्षित रहेगा। यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमारी संस्कृति में ही माता 'भूमिः पुत्रोअहम् पृथ्विव्याः' की अवधारणा निहित है, जिसके तहत हम पृथ्वी को अपनी माता मानते हैं। इस संकल्पना के तहत हम पृथ्वी पर विद्यमान प्रकृति के तत्वों की रक्षा करते हैं। 

हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान मतलब - भ= भूमि, ग= गगन, व= वायु, अ= अग्नि एवं न= नीर होता है। अर्थात् प्रकृति के पाँच मूलभूत तत्वों की पूजा ही हम भगवान के रूप में करते हैं। प्रकृति संरक्षण हेतु हमें अपनी आवश्यकताओं को भी कम करनी होगी। भोगवादी प्रवृत्ति एवं विलासितापूर्ण जीवन का त्याग करना होगा। कहा भी गया है-"अपनी आवश्यकताओं को कम रखें, सुखी रहेंगें"। यह भी कहा गया है कि "उती पाँव पसारिए, जाती तोरी ठाँव। अर्थात् उतना ही पैर फैलाना चाहिए, जितनी बड़ी चादर हो। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे पास जितना संसाधन हो, उसी के अनुरूप उसका उपयोग करना चाहिए। यदि हम अपनी आवश्यकता से अधिक उपयोग करेंगे तो संसाधन जल्द ही समाप्त हो जायेंगे और फिर हमें कष्ट का सामना तो करना ही पड़ेगा।

किन्तु कष्ट इस बात का है कि हम पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगते हुए अपनी मूल अवधारणा को भूलते गए और अंधाधुन्ध विकास हेतु प्रकृति के संसाधनों का अतिशय दोहन एवं शोषण करते गए, जिससे समारे देश में भी प्राकृतिक संतुलन अव्यवस्थित होता जा रहा है और हमारे यहां भी संकट के बादल मँडराने लगे हैं। आज आवश्यकयता इस बात की है कि हम अपनी सनातन भारतीय संस्कृति की अवधारणा को अपनाते हुए विकास की दिशा सुनिश्चित करें, जिससे विकास भी हो और प्रकृति भी सुरक्षित एवं संतुलित रहे। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हमारा भी विनाश अवश्यम्भावी हो जायेगा और हम अपना विनाश अपने ही हाथों कर डालेंगे और अन्ततः कुछ नहीं कर पायेंगे।

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