कोरोना आपदा और उभरते सवाल

कोरोना आपदा और उभरते सवाल


              

विश्व में कोरोना नाम की खतरनाक आपदा से मरने वालों की संख्या लाख से ऊपर जा चुकी है, जो पल-पल बढ़ रही है। कोरोना वायरस चीन के वुहान क्षेत्र में पहली बार 31 दिसम्बर को चिन्हित हुआ और 30 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना क्राइसिस को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया, इसी दिन पहला मामला केरल में प्रकाश में आया। तब से अब तक भारत में हजारों लोग संक्रमित हो चुके हैं और लगातार मर रहे हैं। 

कोरोना वायरस दिन-प्रतिदिन खतरनाक होता जा रहा है। जिसके कारण विश्व के तमाम देशों अमरीका, स्पेन, इटली, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड, चीन, ईरान आदि की स्वास्थ्य प्रणाली चरमरा चुकी है। कोरोना वायरस समाज को ठहर जाने के लिए मजबूर किया है। यातायात के सारे साधन ठप्प हैं तो दवा, अनाज या खाने-पीने की आवश्यक चीजों को छोड़कर माॅल-बाजार सब बंद हैं।

यह संयोग नही है कि भारत में राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, दिल्ली, आंध्र प्रदेश व असम की सरकारों को निजी अस्पतालों के अधिग्रहण पर विचार करने हेतु मजबूर होना पड़ा है, जो दिखाता है कि सरकार को भी संकट की घड़ी में निजी चिकित्सा संस्थानों पर भरोसा नहीं है, क्योंकि अधिकांश निजी संस्थान लोक हित के लिए नहीं, बल्कि मुनाफा कमाने के लिए खोले जाते हैं। इस देश में जनहित सोच रखने वाले लोगों की हमेशा से मांग रही है कि शिक्षा व चिकित्सा क्षेत्र का निजीकरण नहीं होना चाहिए और उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने तो दो अलग फैसलों में यहां तक कहा है कि सरकारी वेतन पाने वाले ऊंचे से ऊंचे पद पर बैठने वाले को भी अपने बच्चों को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालय में पढ़ाना चाहिए व अपने व अपने परिवार के सदस्यों का इलाज सरकारी अस्पताल में उसी चिकित्सक से कराना चाहिए जो उस समय ड्यूटी पर हो। 

ऐसा इसलिए कहा गया, ताकि जब सरकारी अस्पताल व विद्यालय ठीक तरीके से काम करेंगे तो बहुसंख्यक गरीब आबादी को भी उसका लाभ मिलेगा। कोराना वायरस का खतरा जब सर पर आकर खड़ा हो गया है तब लोग महसूस कर रहे हैं कि हमारी सरकारी स्वास्थ्य सेवा की स्थिति चिंताजनक है और कोरोना से निपटने में तो बिल्कुल अक्षम है। ध्यातव्य है कि कोरोना वायरस के संकट के दौर में ही स्पेन ने स्वास्थ्य क्षेत्र का राष्ट्रीयकरण कर लिया है। यहां भी सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर बहस जारी है कि आखिर इस मुश्किल और महामारी के समय में कोई निजी अस्पताल आगे क्यों नहीं आ रहे हैं ?     

देखा जाय तो निजीकरण की मार झेल रही तमाम सरकारी क्षेत्र जी जान से कोरोना से जूझ रहे हैं। भारतीय रेलवे ने कोरोना वायरस से निपटने के लिए अपनी रफ्तार तेज कर दी है। उसने अपनी पूरी ताकत और संसाधन लगा दिए हैं। वह ट्रेनों के 2,500 डिब्बों को आईसोलेशन कोच में बदलने के बाद अब रेलवे के डॉक्टरों और चिकित्साकर्मियों के लिए पीपीई-पोशाक बनाने जा रही है। शुरुआत हरियाणा में पड़ते जगाधरी स्थिति रेलवे कार्यशाला में सबसे पहले पीपीई-पोशाक तैयार किए जा रहे हैं। यहां रोजाना 1000 पीपीई-पोशाक का निर्माण किया जाएगा। इसके साथ ही भारतीय रेलवे अपने अन्य 17 निर्माण ईकाईयों में भी जल्द ही निर्माण कार्य शुरू करेंगी। इतने कम समय में पीपीई का विकास करना एक बड़ी उपलब्धि है, जिसका अनुसरण अन्य एजेंसियां भी करना चाहेंगी।

आप सबको जानकर आश्चर्य होगा कि देश की तमाम ऑर्डनेंस फैक्ट्रियां वर्तमान समय में यह फैक्ट्री स्वास्थ्य कार्मिकों के लिए वेंटिलेटर, PPE ड्रेसेस, सेनेटाइजर, मॉस्क, डिस्पोजेबल चादर आदि का निर्माण करने में जी जान से जुटी हुई हैं। देश की रक्षा हेतु तमाम ऑर्डनेंस फैक्ट्रियां इस आपात काल में अपनी महती भूमिका निभा रही हैं। इसके साथ ही साथ हमारे देश की पुलिस प्रशासन, अधिकारी, सफाईकर्मी, शिक्षक व अन्य सरकारी तंत्र ने कर्मठता से कोरोना महामारी के विरुद्ध युद्ध में खुद को झोंक रखा है। जो लॉक डाउन को सफल बनाने से लेकर, खाद्यान्न पहुंचना, बंटवाना, दवा आदि मुहैया कराने से लेकर 'पीएम केअर फंड' में अपनी सहायता पहुंचने में महती भूमिका अदा कर रहे हैं। साथ ही साथ जमीनी स्तर पर लोगों को जागरूक करने से लेकर गरीब-वंचितों की यथासम्भव क्षमतानुसार सहायता भी कर रहे हैं।

कोरोना वायरस एक प्रकार का निमोनिया है जो बहुत ज्यादा संक्रामक है। विश्व में निमोनिया से मरने वाले बच्चों की संख्या सबसे अधिक भारत में है। सवाल यह है कि जब निमोनिया से बचाव सम्भव है और इसका इलाज भी उपलब्ध है तो छोटे बच्चों के मरने का सबसे बड़ा कारण निमोनिया क्यों बना हुआ है ? क्या इसलिए कि अमीर व साधन सम्पन्न वर्ग के लोगों को यह कम प्रभावित करता है ? क्यों वह निमोनिया भी एक वर्ग विशेष को चिन्हित करके बच्चों का गला घोंट रहा है ?
      
हालांकि कोरोना वायरस रोग दुनिया भर में हवाई यात्रा करने वाले अमीर वर्ग से अनजाने में फैला है, लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा गरीब वर्ग को भुगतना पड़ रहा है। कोरोना वायरस रोग ने समाज में व्याप्त गैर-बराबरी को जग जाहिर कर दिया है। समाज का बड़ा हिस्सा जब साफ पीने के पानी, नल से बहते पानी, स्वच्छ शौचालय, सुरक्षित व पर्याप्त बड़े घर, जिसमें लोगों को भीड़-भाड़ में न रहना पड़े, पोषण आदि से ही वंचित हो तो हम उससे बार-बार हाथ साफ करने, एक मीटर की सामाजिक (जो असल में भौतिक है) दूरी बनाए रखने, घर से बाहर न निकलने जैसे जन-स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक निर्देशों का पालन करने की कैसे अपेक्षा कर सकते हैं ? सोचनीय विषय है कि यदि कोरोना वायरस से बचना है तो सभी इंसानों को सम्मान से जीवन यापन का अधिकार क्यों नहीं है ?

एक तरफ कोरोना वायरस ग्रसित देशों में फंसे भारतीय नागरिकों को वापस लाया गया तो दूसरी तरफ दैनिक मजदूरों को अपने घर जाने के लिए सैकड़ो-हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह मानवीय संवेदना सिर्फ अमीरों के लिए ही कैसे हो सकती है ? सरकारी स्वास्थ्य कर्मी जो कोरोना वायरस रोगियों की सेवा कर रहे हैं वह निःसंदेह प्रशंसा के पात्र हैं, किंतु जब कोरोना वायरस अमीर-गरीब में भेद नहीं करता तो उससे लड़ने वाले स्वास्थ्यकर्मियों में भेदभाव क्यों बरता जाता है ? कोरोना संकट ने हमें अहसास कराया है कि हम इंसान भले ही आपस में भेद-भाव की श्रेणियां बना लें, प्रकृति तो कोई भेद नहीं करती। यह इस महामारी से सीखा जा सकता है। 

आज कोरोना के विरुद्ध युद्धरत सरकार से अनुरोध है कि कार्मिकों के त्याग और बलिदान को ध्यान में अवश्य रखें। आगामी निर्णयों को लेते समय यह न भूलें कि विपदा में भीष्म पितामह की तरह कोई अंत तक मृत्यु से लड़ता रहा वह सरकारी तंत्र व सरकारी कार्मिक ही था। कोरोना महामारी से जूझती  सरकार को एकबार पुनः पुनर्विचार करना होगा कि सर्व समाज की क्या-क्या जरूरते हैं ? उनके लिए बेहद जरूरी रेल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को निजी हाथों में देना कितना सही निर्णय साबित होगा ? 

समीर कुमार पाण्डेय
अध्यक्ष अटेवा बलिया
9451509252

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