बचपन की यादों में खोए Sunbeam Ballia के डायरेक्टर ने बड़े सवाल संग लिखा कुछ यूं ही...




बस यूं ही....
संयुक्त परिवार यानी आत्म विश्वास, साहस,संस्कार, ताकत, त्याग, समर्पण और एक जुटता कि पाठशाला जिसे आज 21st century skills के तौर पर पढ़ाया जा रहा है।यह वही व्यक्ति समझ सकता है जिसने सयुंक्त परिवार में जन्म लिया है और जिसने इन भावनाओं को महसूस भी किया हो l सयुंक्त परिवार की हमारे पूर्वजों ने एक ऐसी सामाजिक संरचना तैयार की थी जिसका आज भी पूरे विश्व में कोइ दूसरा विकल्प मौजूद नहीं है l एक ऐसी संरचना जहां play school, creche, nursing और care takers की कभी कोइ आवश्यक ही नहीं रही l परिवार का हर सदस्य सभी के लिए हमेशा उपलब्ध था l जीवन की महत्वपूर्ण विधाएँ बच्चे स्वतः ही सीख लेते। परिणाम suicide, tension, anxiety, overburdain जैसे skill का आविष्कार ही नहीं हो पाया था।
परिवार के विघटन के साथ ही साथ समाज में भी विकृतियां बढ़ती चली गई और आज थोड़ी सी स्वतंत्रता और भौतिक सुख के क्षणिक लालच में हम नैसर्गीक मूल्यों से बहुत दूर निकल चुके हैं l आज ये आंकलन करना बहुत मुश्किल है कि वास्तव में हमने क्या खोया और क्या पाया है? हालाँकि कोविड जैसी त्रासदी मे एक बार फिर से परिवार की गरिमा को चिन्हित किया और बहुत से लोग मजबूरी में ही सही अपने परिवार के पास वापिस लौट आए l जिन्होंने इसकी महत्ता को समझा कि कैसे विषम संकट मे परिवार उनकी शरणस्थली बना, वो पूरी तन्मयता से पारिवारिक रिश्तों को निभाने के लिए दृढ़संकल्पित हैं।
मेरा बचपन और पूरा जीवन संयुक्त परिवार में ही गुजरा है। इसलिए संयुक्त परिवार के संस्कारों का वर्णन और उसकी अनुभूति को व्यक्त करना मेरी शाब्दिक क्षमता से बाहर है। इसके लिए मजबूत साहित्यिक परिकल्पना की आवश्यकता होगी। आज बात करते हैं इस तस्वीर में मौजूद मेरे चचेरे बड़े भाई और उनकी धर्मपत्नी की है जिनके साथ मेरी ये तस्वीर अब 52 वर्ष की उम्र में कोलकाता के IIM जो भारत का पहला Management Institute है से "Educational Leadership" का कोर्स सफ़लता पूर्वक पूरी करने के बाद की है l
कह सकते है इसका पूरा श्रेय आप दोनों को है। चचेरा शब्द या रिश्ता बहुत बड़ा होने के बाद जाना। कुछ ऐसा था ही नहीं कि इसका अनुभव या ज्ञान हो। घर से लेकर गांव तक कोई इसकी चर्चा नहीं करता था। मै खुद अपने पिताजी को चाचा कहता हूं। क्योंकि सभी भाई चाचा कहते हैं। बड़की माई का दूध पीकर बड़ा हुआ इसलिए मां और बड़की माई में फर्क नहीं समझ पाया। अगर अच्छा किया तो बड़े पिताजी यानी बाबूजी का बेटा और गलत किया तो भी बाबूजी का बेटा पूरा गांव जनता था कि बाबूजी के 8 बेटे है। स्कूल में प्रवेश बाबूजी ही कराएंगे और शादी भी बाबूजी कि मर्जी से होगी। फीस, कपड़ा, सबकुछ बाबूजी कि ज़िम्मेदारी। अपने मां/बाप केवल जन्मदाता।
आप दोनों का मेरे जीवन को बदलने और एक नई दिशा देने मे महत्वपूर्ण योगदान रहा है l गाँव से अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करके मैं GIC Ballia से 10 वीं की पढ़ाई कर रहा था l तब भैया ने बोला कि यदि मैं 10 वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास कर लेता हूं तो वो मुझे कोलकाता के अच्छे स्कूल में प्रवेश दिला देंगे l सच बताऊँ तो वास्तविक पढ़ाई का मतलब मुझे तब तक पता नहीं था l यही सोच रखा था कि किसी तरह 10 वीं पास कर लूं और सिपाही या सेना मे भर्ती हो जाऊँ l जैसा कि सामन्यतः मेरी उम्र के गाँव के ज्यादातर युवाओं की होती है।
10वीं मैंने Second division से पास किया और भैया ज़बर्दस्ती मुझे कोलकाता लाए और 11 वीं मे admission भी दिला दिया। किराये का एक कमरा, एक छोटा रसोई घर और एक छोटा सा बरामदा। भैया - भाभी, 2 छोटे बच्चे और मैं...। जगह जरूर कम थी पर दिल में कहीं तंगदिली नहीं थी। कभी कभी तो अगर दोनों भाई साथ खाने बैठ जाएं तो आटा दुबारा सनना पड़ता था। खुद कितना भी कष्ट झेल लूँ.. परिवार भी कष्ट झेल ले लेकिन भाई को पढ़ाने का ज़ज्बा कहीं से कमजोर नहीं पड़ा। आज उनके त्याग और समर्पण का ही प्रतिफल है कि मैं अपने जीवन में बहुत कुछ बड़ा कर पाया या शायद जो बन पाया उसकी नीव भाई की छत्रछाया मे कोलकाता में बिताए उन 2 वर्षो के परवरिश की थी।
वास्तविक शिक्षा क्या होती है मैं वही जान पाया। जिसका परिणाम है कि मैं उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाया। ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है, बल्कि मेरे हमउम्र और उससे कुछ बड़े, कुछ छोटे उन सभी युवाओं की है जिनका बचपन सयुंक्त परिवार मे बिता है। अपने बड़ों का पुराना गमच्छा हो या शर्ट पैंट और चप्पल.. पहनकर जो सुखद अनुभव और खुशी मिलती थी वो आज अपने ही कमाए पैसों से खरीदे महंगे- महंगे ब्रांड के कपड़ों से नहीं मिलता।
जाने कहां गए वो दिन...
फेसबुक वाल से


Comments