पत्रकार नरेन्द्र मिश्र की नजर में पूर्वांचल के किसान ; आज बस इतना ही
कोरोना (कोविड 19) को लेकर जहां भारत वर्ष ही नहीं, बल्कि विश्व परेशान है। सब पहिया थम गए, लेकिन किसानों का पहिया नहीं रुका। उसमें भारत सरकार से लगायत राज्य सरकारों का भी सराहनीय योगदान रहा है। ऐसे ही पर्व की बात करें तो पर्व कितना भी आये किसान अपने में व्यस्त रहते हैं। खेत से लेकर खलिहान तक किसानों के साथ मजदूर का भी अहम भूमिका रहती है। भले ही भोजन करते समय चावल दाल है तो सब्जी न मिले। उतने पर भी केवल चावल दाल को ग्रहण कर अपने काम में लग जाते हैं। मैं पूर्वांचल के किसानों की जिक्र कर रहा हूं, जो वाकई किसान हैं। वैसे तो इनाम और फायदा लेने वाले किसान कतार में खड़ें हैं, जो सच में फावड़ा हाथ में पकड़ा दिया जाय तो अपने पैर पर फावड़ा चला लेंगे। कारण कि उन्हें मिट्टी पर फावड़ा क्या ऐसे भी फावड़ा चलाने की आदत नहीं है। कहने को किसान नेता बन जाएंगे या बड़े किसान बन जाएंगे।
धान की रोपाई हो या कटाई मेहनत देखते ही बनता है
खेतों में धान की रोपाई जब होती है तो किसान परेशान हो जाता है। खेत में तैयार धान बीज मजदूरों के सहयोग से उखाड़ना, उसके बाद खेत में पानी चलाकर खेत तैयार करना, ताकि बीज की रोपाई हो सकें। उस मेहनत को भी बखूबी देखा जा सकता है।
धान की फसल तैयार हो जाय तो खेतों से खलिहान तक लाना, अगर खेत में पानी लगा है उसमें भी धान काटना ही है।
धान फसल तैयार है तो कटाई शुरू होती है। खेत अगर सूखा हुआ है तब तो राहत है। खेत में पानी लगा है उसमें भी धान काटना है। वहां से खलिहान में लाना पड़ता है। खैर अब बहुत परिवर्तन हो गया है। खलिहान खेत में ही रख दिये जा रहे हैं।
'एक समय था जब खलिहान बगीचा में हुआ करता था'
धान फसल तैयार होने पर उधर कटाई शुरू होती थी तो दूसरी तरफ बगीचा में खलिहान बनाया जाता था। किसान अपने फसल के अनुसार बगीचों में सैकड़ों की संख्या में खलिहान ऐसा बनाते थे मानों भूल भुलैया जैसा बन जाता था। उसमें बच्चे लुका-छिपी भी खेलते थे। वो खलिहान सपना जैसा प्रतीत हो रहा है।
धान की खड़ी फसल देखकर भी मन गदगद हो जाते हैं।
धान की खेती लगभग पूर्वांचल के जनपदों में तैयार है। वो समय याद आता है, जब खेत में थोड़ी सी जगह यानी कट्ठा भर में बीज डाला जाता है। जब उस बीज की रोपाई होती है तो एकड़ में तैयार होकर धान फसल तैयार हो जाता है। जैसे कि यह दृश्य देखकर मन गदगद हो जाता है।
"साठी के चावल आ करहनी के चावल के भी जवाब नइखे, वो भी केवल नमक डालकर जी"
सपना जैसा अब लग रहा है, जब हम लिख रहे हैं। बचपन में हमने देखा ही नहीं भोजन भी किया है। धान के फसल में पहले लगभग गांव के हरेक किसान के दरवाजे पर साठी का धान देखा जाता था। 60 दिन में साठी थान तैयार हो जाता था। रंग की बात करें तो लाल रंग का चावल तैयार होता था। इतना ही नही जब चावल पकाया जाता था तो आंगन में बैठकर चावल के साथ दाल-सब्जी की जरूरत नहीं होती थी। नमक के साथ ही गर्म चावल अच्छा लगता था। "साठी के चावल आ करहनी के चावल के भी जवाब नइखे जी" करहनी का चावल काला रंग का होता था, परंतु उसका चिउड़ा खाने में मजा आता था।
आज बस इतना ही आप सभी को नमस्कार
नरेन्द्र मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार बलिया
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