जयंती पर विशेष : आचार्य जी और मेरी मातृभूमि बलिया
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बचपन में रेल में चढ़ने और रेल से यात्रा करने की बड़ी उत्सुकता थी। वैसे तो रेल में यात्रा करने के अनेक अवसर आये, लेकिन मुझे एक बार मामा के गांव (बड़ी अम्मा के गांव) बकुल्हा (टोला फत्ते राय ) जाना हुआ। मन में बड़ी उत्सुकता थी, क्योंकि मैं पहली बार बलिया से पूरब की यात्रा पर था। उम्र करीब 14-15 वर्ष की होंगी। हाई स्कूल में पढ रहा था। विज्ञान का विद्यार्थी था, मगर हिंदी ख़ास अभिरुचि का विषय थी। अक्सर हिंदी के साहित्यकारों, कवियों एवं लेखकों को खंगाला करता था। पुस्तक की कहानी, और कविता के शीर्ष में उस कवि या कहानीकार का संक्षेप में जीवन परिचय लिखा रहता था। उसे जरूर पढ़ता था। अपने जानने वाले जगह का अगर कोई लेखक या कवि दिख जाता तो लगता कि अपना हो गया। जैसे प्राईमरी में मैं आजमगढ़ के सरायमीर में पढ़ता था तो अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध के गांव निजामबाद, को पढ़ता था।
ठीक इसी तरह बचपन में जब बुआ के यहां टिसौरी गाजीपुर गर्मियों में आम खाने गया तो, मेरी बड़ी बहन रामावती बहिन के ससुराल के जिक्र में डुमराव (तब का आजमगढ़ और अब का मऊ) का नाम आया तो, झटके से हल्दीघाटी के रचईता पंडित श्यामनारायण पाण्डेय जी याद आ गए। मगर मैं जिसका-जिसका जिक्र करने निकला था, वहां से काफी दूर निकल आया। यह बिडंबना हुई या फिर मेरी लेखन शैली की गड़बडी। वैसे मैं लिखता कम दृश्यनांकन ज्यादा करता हूं।
मैं फिर वहीं अपने मामा के गांव वाली छपरहिया ट्रेन में बैठ गया। छपरहिया ट्रेन यानि जो ट्रेन मऊ से छपरा जाती है, उसे गांव घर की बोली में छपरहिया ही बोलते थे। खैर ट्रेन आगे बढ़ी। मैं स्टेशन दर स्टेशन गिनता पढ़ता आगे बढ़ रहा था। अचानक मेरी ट्रेन सुरेमनपुर में रुकी। स्टेशन के साइड में लगे शिलापट्ट को पढकर मन बांसो उछल गया। लिखा था इस स्थान से पांच किलो मीटर की दूरी पर दूबेछपरा में डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का जन्मस्थान है। अब क्या पूछना... मुझे तो मेरे दिल का और मेरे जनपद का साहित्यकार मिल गया। मेरी यह यात्रा ही अमर हो गयी। मै डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को खूब पढ़ने लगा।
लगता था, अपने पुरखे पुरनियों को पढ रहा हूं। हिंदी साहित्य के इस महामनीषी को भारत का साहित्य कितने प्यार से संजोये रखता है, इसका अंदाजा आज भी गद्य साहित्य में आचार्य जी की प्रासंगिकता के आलोक में दृष्टिगत होती है। अब जब मैं साहित्य के क्षेत्र में कुछ लेखन-मनन करता हूं तो मेरी रूचि और भी अधिक बढ़ती गयी। फिर से थोड़ा पीछे जाता हूं। अपने गृह जनपद बलिया प्रवास के दौरान अक्सर इन बातों की चर्चा करता हूं।
बलिया की माटी में जन्मे हिंदी साहित्य के विद्वानों की मजबूत और साहित्य से समृद्ध श्रृंखला है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी सदृश मूर्धन्य संत साहित्यकार से लेकर डॉ. केदार नाथ सिंह, सदृश्य साहित्यकारों को जन्म देने वाली भूमि स्वयं मे नमन योग्य है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के जन्मस्थान के विषय में जैसा लिखा गया है। उसके थोड़ा हट कर उनके पैतृक गांव का अस्तित्व ओझवलिया में मिलता है।
यह बात एक यात्रा की चर्चा के दौरान मेरे मित्र एवं अत्यंत अंतरंग सहयोगी, बलिया के प्रतिष्ठित इंग्लिश स्कूल के डाइरेक्टर डॉ. कुंवर अरुण कुमार सिंह ने बताया। वैसे भी हमारे जनपद के गांवों की भौगोलिक स्थिति को मां गंगा और और सरयू ने खूब बदला है। गंगा और सरयू (घाघरा) के संगम के बीच बसें मेरे जनपद बलिया का यह भाग द्वाबा इसी कारण कहा जाता है, क्योंकि यह दो आब (जल) के बीच का भाग हुआ। कुंवर अरुण कुमार सिंह कहते हैं कि आचार्य जी का घर ओझवालिया में है। और वह पेड़ भी है, जिसके नीचे वे लिखा करते थे। जहां आचार्य जी का जन्म हुआ, वह जगह तो साहित्यकारों का तीर्थ हुआ। मुंशी प्रेमचंद का गांव लमही तीर्थ ही तो है।
हां मेरी अगली योजना में ओझावालिया की यात्रा विशेष रहेगी और उस पर लिखूंगा भी। आज आचार्य जी का, यानी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म दिन है। आज पूरा साहित्यकार वर्ग इसे समारोह की तरह मना रहा है। वैसे तो कोई बड़ा आयोजन मेरे आस पास नहीं दिखा, लेकिन मैंने विश्व हिंदी संगठन नई दिल्ली के आयोजन में आयोजित एक वेब गोष्टी में रजिस्ट्रेशन करा लिया, और आज एक श्रोता के रूप में जुड़ने की कोशिश करूंगा। लेकिन आज अपने इस लेख के माध्यम से मैं आचार्य जी को याद करता हूं। उन्हें नमन करता हूं। उनके चित्र पर श्रद्धा के पुष्प अर्पित करता हूं।
©®राजेश कुमार सिंह 'श्रेयस'
लखनऊ, उप्र (भारत)
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