आषाढ़ बीता जाय
काली अंधियारी रातों में,
झींगुर की झिं-झिन होती थी।
मेंढ़क की टर-टर सुनकर के,
रातों में नींद उचटती थी।
कूलर-पंखे का शोर बहुत
आवाज नहीं आए,
बीत गया आषाढ़ सखी
जज़्बात नहीं आए।
क्षण क्षण में बूंदें आती थी,
अगले पल धूप निकलती थी।
इस दिन की कारगुज़ारी को,
रातें भी खूब भुगतती थी।
एसी ने उमस निगल डाला,
एहसास नहीं आए।
बीत गया आषाढ़ सखी
जज़्बात नहीं आए।
परदेश पिया जिनके होते,
बादल से बातें करते थे।
जैसी सूरत मन में बसती,
बादल में चित्र उभरते थे।
मोबाइल ने मदहोश किया,
संदेश नहीं आए।
बीत गया आषाढ़ सखी
जज़्बात नहीं आए।
जज़्बात नहीं आए।
डॉ. मिथिलेश राय
जनाड़ी, बलिया
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