समझे न दर्द तुम भी कभी और बात है,
ग़ज़लों में हाले दिल मैं बताती चली गई।
ग़ज़लों में हाले दिल मैं बताती चली गई।
राहों में दिल की आयी तो मुश्किल मगर, मेरे
जीवन को हौसलों से सजाती चली गई।
ये हौसला न टूटने पाये कभी कहीं,
उम्मीद ख़ुद ही ख़ुद में जगाती चली गई।
कांटे उठा के सारे ही दामन में रख लिये,
फूलों से तेरी राह सजाती चली गई।
तुझसे फ़रेब खाने का कुछ ग़म नहीं किया,
नगमे हसीन इश्क़ के गाती चली गयी।
होगा निगाह खुद से मिलाना भी फिर कठिन,
मैयार तू जो खुद का गिराती चली गई।
रजनी टाटस्कर, भोपाल (म.प्र.)
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